मैं घर का बडा
हमेशा बडा ही बना रहा
कभी छोटा हो ही नहीं पाया
बचपन था तब भी बडा
आज उम्र के इस पड़ाव पर भी बडा
अब थक गया हूँ
जिम्मेदारियो का बोझ उठाते उठाते
सबकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करते हुए
अब मैं मुक्त होना चाहता हूँ
छोटा बनना चाहता हूँ
बचपना करना चाहता हूँ
मनमानी करना चाहता हूँ
जी भर कर जीना चाहता हूँ
किसी की परवाह नहीं करना चाहता हूँ
इन सबसे मुझे क्या मिला
बस मैंने हमेशा अपने मन को मारा
छोटो को संभाला
आज सब मस्त है
मैं अभी भी त्रस्त हूँ
कब तक इस बडेपन का बोझ ढोऊ
कंधे बोझिल हो गए हैं
बस अब बहुत हुआ
बडे में सहनशीलता
छोटे में उत्पात
यही है हमारी मानसिकता
अब यह बदलाव करना है
छोटे भी अब छोटे नहीं रहे
वह भी बडे हो गये हैं
जैसे मैं वैसे वह
यही होनी चाहिये
सबकी सोच
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