हर कोई शहरी बनना चाहता है
शहर के पहनावे - खान पान सब अपनाने को आतुर
अपनी परम्परा छोड़ रहें
आधुनिकता में ढल रहें
फैशन की होड लग रही
सब शहर की ओर दौड़ लगा रहें
गाँव को छोड़ शहर में बस रहें
झोपड़ी - झुग्गी में रह रहें
गंदे नालों की बदबू सह रहें
ट्रेन और बस के धक्के खा रहें
सुकून और शांति नहीं
फिर भी शहर भाता है
क्यों हो रहा है ऐसा
अच्छी - खासी जिंदगी छोड शहर की ओर भागना
यहाँ मेहनत करेंगे
चौकीदारी- दरबानी करेंगे
सर पर बोझ ढोयेगे
पर खेती में काम नहीं करेंगे
जितनी मेहनत शहर में उससे आधी भी गाँव में करें
तब भी जिंदगी अच्छी रहेंगी
लेकिन नहीं
एक अदद नौकरी की दरकार
खींच लाती है
उनको शहर की ओर
उनको अपने मायाजाल में उलझा लेता है यह शहर
यहाँ भीड़ तो बहुत है
आपाधापी भी बहुत है
बिना काम किए भोजन नसीब नहीं
भीड़ में अकेला होता है आदमी
अपना गाँव अपने लोग छोड़ आता है
सुकून भले न हो
पैसा तो है
और पैसा तो बोलता है
सबको गोल - गोल घुमाता है
अनवरत इच्छा और आकांक्षा
वही साकार करने को पैर बढ पडते है शहर की ओर ।
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