शेर से कम नहीं ऑकता था
बात - बात पर गुर्राता था
किसी को अपने पास फटकने न देता था
अपने आगे किसी की न सुनता था
मन ही मन इतराता था
शहंशाह बना फिरता था
वक्त ने क्या पलटी खाई
हेकड़ी सब धरी की धरी रह गई
कोई नहीं अपना यह लगता है
अकेलापन लगता है
न कोई शौक मेरे न कोई नजदीकी
महसूस होता है
दुख भी होता है
बस जाहिर नहीं करता
गुरूर का अंश हैं ही अब भी
स्वीकार कर लेना फितरत नहीं मेरी
वह जोश जवानी का रहा नहीं
पछतावा करना भी नहीं
मैं ही सही था और हूँ
तब भी और अब भी
हमेशा ही रहूँगा
मैं गलत करता नहीं
गलत हो ही नहीं सकता
शायद मैं इंसान नहीं हूँ
इंसान होता तो उस जैसा होता
खुशी - दुख - नाराजगी - माफी - हास्य - रूदन
सब मेरे साथ चलती
मैं तो रहता हूँ हेकड़ी में
बस सुनता अपने मन की
मैं तो वह कठोर पत्थर हूँ
कोई लाख सर मारे तब भी कोई असर नहीं
मैं इंसान जैसा मोम नहीं जो पिघल जाऊं
सुना है पत्थर को भी ठोकर लगती है
लोग पैर से ढुलकाते हैं
कभी इधर कभी उधर
डरता हूँ उस दिन से
वक्त की मार बड़ी बेरहम है
शेर को भी गिदड़ बना छोड़ती है
देखना है
शेर कब तक शेर रहता है
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