Friday, 7 February 2025

वे किस्से - कहानियाँ

पढ़ते थे हम एक जमाने में 
किस्से - कहानियाँ 
खो जाया करते थे उनमें 
रात भर जाग कर पूरा करते थे 
मन भावुक हो उठता था
कल्पना में खो जाते थे
वे पात्र अपने लगते थे 
दुखद होने पर रो उठते थे
पढ़ते पढ़ते आँखों से आँसू बह उठते थे 
वे जेहन पर छाए रहते थे 
नहीं प्रेमचंद की निर्मला को भूले 
न शरत के देवदास को 
न कालिदास की शकुंतला को भूले
न दिनकर की उर्वशी को 
न गुलेरी के उसने कहा था के बच्चों को 
न तीसरी कसम के उस गीत को 
चिठिया हो तो हर कोई बांचे भाग न बांचे कोय
जिनको पढ़कर हम इतने भावुक हो सकते हैं 
जिन पर गुजरी है उनका 
बहुत मुश्किल है 
सही भी है 
तुम हमारी तकलीफ को सरेआम करो 
हमारा कुछ न हो कुछ का भला तो होगा 

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