अपने घर में रहने का
ऊब गये थे भटकते - भटकते
कभी यहाँ कभी वहाँ
कुछ रास न आता
बड़ी अनिश्चिता थी
करते क्या ??
मजबूरी भी थी
पैसे भी तो चाहिए
लग गए जोड़ने - घटाने
हिसाब बैठाने
बरसों लग गए
आखिर वह समय भी आया
एक अपना घर भी हुआ
सपना तो पूर्ण हुआ
अपना कोई न था उसमें
सबके अलग-अलग घोंसले
वह मजा अब नहीं
जो लगता है अपने घर में नहीं था
अब तो लगता है
क्या अपना क्या पराया
बिना अपनों के उन सपनों का क्या
वह घर क्या जिसमें रहने वाला कोई न हो
सपना भी अपनों बिना फीका
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