हम कब हंसे
यह याद नहीं
पहले तो कितना खिलखिलाते थे
अट्टहास लगाया करते थे
वह तो न जाने कब पीछे छूट गया
ऐसा नहीं आज हंसी आती नहीं
आते आते ही थम जाती है
कुछ गम की याद दिला जाती है
कुछ पीडा से रूबरू करवा जाती है
होठों तक आते आते रूक जाती है
बनावटी हंसी हंस ही लेते हैं
लेकिन वह मन से निकली नहीं होती
मुख हंसता है
ऑखों के कोरो पर ऑसू झिलमिला जाते हैं
जल्दी से उन्हें पी जाते हैं
या पोंछ लेते हैं
ताकि मेरी पीडा का एहसास किसी को न हो
वह मुझ तक ही सीमित रहे
उसका विज्ञापन नहीं करना है
ढिंढोरा नहीं पीटना है
पीडा मेरी है
उस पर हक भी मेरा है
किसी को जानने या जनाने की जरूरत नहीं
क्योंकि किसी की पीड़ा
किसी का जश्न
हंसते हंसते बताएंगे
जैसे टेलीविजन सीरियल की कहानी सुना रहे हो
तब तो झूठा ही सही
सबके सामने तो हंसना और मुस्कुराना है
असलियत तो यह है
हम कब हंसे
यह याद नहीं
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Wednesday, 20 May 2020
हम कब हंसे यह याद नहीं
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