मैं हाल ही में एक नई लगी हुई फिल्म देखने गई थी
सोचा भीड होगी ,टिकट मिलेगा भी या नहीं
पर वहॉ जाकर देखने पर पता चला कि टिकट खिडकी पर टिकट आसानी से मिल रहा था
अंदर जाने पर दिखा कि आधे से ज्यादा सिनेमा हॉल खाली था
आश्चर्य हुआ ,एक समय था कि फिल्में हाऊसफूल रहती थी
हफ्तों पहले बुकिंग करानी पडती थी
अचानक गए तो ब्लेक में दुगुना भाव देकर टिकट खरिदना पडता था
टिकट न मिलने पर टिकट खिडकियॉ टूट जाती थी
अब शायद फिल्म देखने के बहुत से साधन उपलब्ध है
टेलीविजन से लेकर मोबाईल तक
लोगों के पास फुरसत भी नहीं है
मनोरंजन के और भी साधन है
दूसरा मल्टीप्लेक्स थियेटर के रेट ,सबके बस की बात नहीं
उतने में तो पूरा परिवार देख ले
दूसरा अब देवानंद ,राजेश खन्ना के पीछे वाली दीवानगी भी नहीं रह गई है
अब लोग वास्तविकता में जी रहे हैं
हीरों वाला आदर्श की भावना अब नहीं रह गई है
करोडो की लागत से फिल्में बनती है
अब कोई सुपर स्टार भी नहीं है
एक फिल्म चलती तो दूसरी फ्लाप हो जाती है
नाम से नहीं अच्छी कहानी और विषय फिल्म की मॉग है फिर चाहे वह कलाकार कोई भी हो
परिवर्तन हो रहा है या जो छोटे शहर है वहॉ अभी भी थोडा क्रेज है पर बडे शहरों में
कितने थियेटर बंद हो गए हैं या बंद होने की कगार पर है ,थियेटर को हटाकर मॉल बनाने में ज्यादा लाभ दिखता है
गरिबों और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिए इक्का- दुक्का थियेटर ही बचे हैं
सिनेमा अब पहले जैसा सिनेमा नहीं रह गया
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