ना कहना इतना आसान नहीं
जिंदगी में समझौते की आदत जो पड गई है
बचपन से लेकर बुढापे तक समझौता ही तो
घर से लेकर बाहर तक
सबको हर कुछ नहीं मिलता
यही सिखाया जाता है
दबना और सब्र करना चाहिए
किसी की बात पर ध्यान नहीं देना
इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना
कभी परिस्थिती के कारण
कभी अपनो के खातिर
बचपन में दोस्तों के साथ समझौता
पाठशाला में ,पडोसियों के साथ
विवाह होने पर समझौता
बच्चों और परिवार के साथ समझौता
कार्यस्थल पर समझौता
कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि यह हमारी इच्छा है
हम अपने जीवन को अपने तरीके से जीएगे
यह हमारा अधिकार है
बस दूसरों की मर्जी से जीवन चलाते हैं
परिवार क्या कहेगा??
लोग क्या कहेंगे ??
समाज क्या कहेगा !??
इसी ताने- बाने में जिंदगी उलझती जाती है
हम डरते रहते हैं
कहीं अकेले न पड जाय
ना कहने की हिम्मत नहीं होती
बचपन ,युवावस्था ,वृद्धावस्था के पडाव पर चलते
न जाने कितने समझौते करता है इंसान
कभी प्यार के खातिर तो कभी मजबूरी और लाचारी में
जिसने जिंदगी भर समझौता ही किया हो
वह आवाज उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है
दोस्त ,पडोसी ,रिश्तेदार ,साथ काम करने वाले सहकर्मी
बॉस और मालिक
सबके साथ रहना है
सामाजिक प्राणी जो है इंसान
इस ना और हा के चक्कर में उलझा रहता है इंसान
ना कहना इतना आसान नहीं
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