हमारा भारत मूर्तिपूजक देश है
हर साल लाखों मुर्तियां बनाई जाती है
कुछ को स्थापित तो कुछ को प्रवाहित
सडक से लेकर दिवार तक
ईश्वर की मुर्तियां तो है ही
महान पुरूषो की भी
बढ चढ कर होड लगी रहती है
निर्जीव मूर्तियों के लिए इतना कुछ
जीवित मुर्तियां निर्जीव सी
उनके लिए कुछ नहीं
न भर पेट खाना न मकान न वस्र
वह बदहाली में जीवनयापन करते हैं
जितना इन मूर्तियों पर खर्च किया जाता है
जीवित व्यक्ति पर खर्च किया जाए
उनमें जान फूंकी जाय
उन्हें इंसान बनाया जाए
शिक्षित किया जाए
मरे हुए लाश की अपेक्षा जीता जागता
हंसता गाता जीवन दिया जाए
मुर्तिया तो अमर है
यह तो नहीं
मृत्यु आने से पहले ही किसी को मार देना
तिल तिल के लिए भटकना
यह तो सभ्य समाज की पहचान नहीं
एक ठाठ करें
दूसरे को सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं
ऐसा असंतुलन विकास नहीं कर सकता
इससे अस॔तोष व्याप्त
वह कहाँ तक जाएगा
उसका परिणाम क्या होगा
यह समाज के लिए घातक हो सकता है
जीने का मौलिक अधिकार हर नागरिक का है
तब मुर्तियां बनाने की जगह
जीवित मानव में जान फूंकने की जरूरत है
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