बचपन में पतंगे उडती थी
एक तरफ हिंदू बस्ती
दूसरी तरफ मुसलमानों का मुहल्ला
छत पर से जाती हुई पतंग को
मांजे में पत्थर बांध कर नीचे कर तोड़ लेते थे
मजा आता था
शैतानिया थी यह परेशान करने का
उडाने वाले समझ न पाते
बिना पेंच लडे
कट कैसे गई
पतंग पर यह नहीं लिखा होता था
यह किसकी है
कौन से धर्म वालों की है
पर जब दंगा हुआ
तब समझ आया
कि सब अलग अलग है
हम जहाँ सुरक्षित महसूस कर रहे थे
सुरक्षित नहीं थे
सब एक दूसरे के पडोसी
आज धर्म ने दीवार खडी की थी
अब डर लगता था
अब दूर से देखते थे
पर हिम्मत न होती थी
कब जाने बवाल हो जाय
खेल खेल में
खून खराबा हो जाय
अब केवल पतंग को निहारते
अब वह भी धर्म की हो गई थी
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