शक और फिक्र
यह दोनों ही इंसानी फितरत
दोनों में जमीन - आसमान का अंतर
कभी-कभी दोनों एक साथ रहते हैं
कभी-कभी अलग-अलग
जिसकी फिक्र होती है
उसी पर सबसे ज्यादा शक भी होता है
कहीं गलत तो नहीं
कहीं फंस तो नहीं गया
शक अंजान पर होता है
शक नहीं करना चाहिए
पर करना पडता है
सब पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता
फिक्र तो अपनों की होती है
पर दोनों ही नींद हराम कर डालते हैं
एक साथ आने पर और भी भारी
यह छूटते भी नहीं
अभिन्न हिस्सा है
तब फिक्रमंद हो पर बहुत ज्यादा नहीं
शक भी हो
इतना नहीं कि जीवन दुश्वार हो जाय
दुनिया में रहना है
दुनियादारी तो निभानी पडेगी
पर संयम के दायरे में
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