बहुत दिनो से मन में दबी हुई थी
राख के नीचे चिंगारी सुलग रही थी
नहीं ऐसा कोई मिला
जिससे कर सकूं गिला शिकवा
मरहम के कुछ बोल पडे
जो दबे हुए थे वह बाहर आ गए
सारे जज्बात बह चलें
ऑखों से अश्रु ढल पडे
तब जाकर ठंडक पडी कलेजे में
सब बुझ गए राख की ढेरी मे
अब हैं सब शांत शांत
तूफान का हो गया अंत
चल पडी बयार प्रेम की
मन ही मन मुस्करा पडी
अपने आप से बोल पडी
अब नहीं किसी से कोई शिकवा शिकायत
बस जब हो प्रेम का घेरा
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