Tuesday, 5 January 2021

आज भी नारी वहीं की वहीं

परदा टंगा है खिड़कियों पर
वहाँ से दो ऑखे हर दम घूरती रहती हैं
कब तक परदा लगा रहे
थोड़ी तो हवा आएं या जाएं
किसी को मना नहीं किया जा सकता
वह अपने घर में है
जो चाहे वह करें

इसी से याद आ गया
औरत का यह हाल
घूंघट में रखों
बुरखे में रखों
किसी की नजर न पडे
कर्म किसी का
फल किसी और को भुगतना

यहाँ मत जाओ
वहाँ मत जाओ
दरवाजे - गैलरी पर मत खडे रहों
किसी से बात मत करों
न जाने कितनी पाबंदियां
बच्ची से लेकर एक औरत के सफर तक

कौन फालतू का झगड़ा मोल ले
कभी-कभी जान भी चली जाती है
परिवार डरता है
इसलिए पाबंदी लगाता है
जबकि पाबंदी तो
उन गंदी नजरों पर
उन गंदे विचारों पर
लगनी चाहिए
रेल - बस या फिर सडक
छेडछाड , छूने की कोशिश
इस पर लगाम लगें
बीमारी खत्म हो
बीमार नहीं
कब तक औरतों  को इन कुत्सित विचार वाले लोगों का सामना करना पडेगा

पुरूष बडी बडी बातें करते हैं
औरतों को भी दोषी मानते हैं
लेकिन यह तो इतिहासविदित है
सीता , द्रौपदी , पद्मावती
ये तो महारानियां थी
तब भी इन्हें भुगतना पड़ा
तब साधारण नारी की क्या स्थिति
यह बात दिगर है कि
वह कल की बात थी
लेकिन आज भी तो कहाँ कुछ बदला है
जो दिखता है वह भी पूर्ण सत्य नहीं

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