परदा टंगा है खिड़कियों पर
वहाँ से दो ऑखे हर दम घूरती रहती हैं
कब तक परदा लगा रहे
थोड़ी तो हवा आएं या जाएं
किसी को मना नहीं किया जा सकता
वह अपने घर में है
जो चाहे वह करें
इसी से याद आ गया
औरत का यह हाल
घूंघट में रखों
बुरखे में रखों
किसी की नजर न पडे
कर्म किसी का
फल किसी और को भुगतना
यहाँ मत जाओ
वहाँ मत जाओ
दरवाजे - गैलरी पर मत खडे रहों
किसी से बात मत करों
न जाने कितनी पाबंदियां
बच्ची से लेकर एक औरत के सफर तक
कौन फालतू का झगड़ा मोल ले
कभी-कभी जान भी चली जाती है
परिवार डरता है
इसलिए पाबंदी लगाता है
जबकि पाबंदी तो
उन गंदी नजरों पर
उन गंदे विचारों पर
लगनी चाहिए
रेल - बस या फिर सडक
छेडछाड , छूने की कोशिश
इस पर लगाम लगें
बीमारी खत्म हो
बीमार नहीं
कब तक औरतों को इन कुत्सित विचार वाले लोगों का सामना करना पडेगा
पुरूष बडी बडी बातें करते हैं
औरतों को भी दोषी मानते हैं
लेकिन यह तो इतिहासविदित है
सीता , द्रौपदी , पद्मावती
ये तो महारानियां थी
तब भी इन्हें भुगतना पड़ा
तब साधारण नारी की क्या स्थिति
यह बात दिगर है कि
वह कल की बात थी
लेकिन आज भी तो कहाँ कुछ बदला है
जो दिखता है वह भी पूर्ण सत्य नहीं
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