वह एक सीधी - सादी
गाँव की बेटी
अपने माँ - पापा की दुलारी
घर काम , सिलाई - बुनाई में निपुण
गरीब की बेटी
यही उसकी विडंबना बन गई
पिता भले ही गरीब होंगे
पर स्वाभिमान से भरपूर
अपने बच्चों को कमी का एहसास नहीं होने दिया
अपने बासी खा लेते
बच्चों को टटका यानि ताजा
ब्याह तो हुआ
घरबार देखकर
लेकिन जिसके साथ फेरे लिए
वह एक नंबर का शराबी
आलसी और निकम्मा
बाप का बनाया दो तल्ले का मकान
बाप की पेंशन उसी से गुजारा
माँ थी ही
काम करने की कोई आवश्यकता नहीं
कभी नागवार गुजरता
बोलती- झगड़ती
तब सब यह ताना मारते
गरीब की बेटी है
देहाती और गाँव की है
चुप करा दिया जाता ।
पापा भी चले गए
किससे अपनी व्यथा कहे
पापा होते तो झगड़ती
नाराज होती
गुस्सा उतारती
वे भी तो नहीं हैं
पूछती उनसे
आपने ऐसे व्यक्ति के पल्ले क्यों बांधा
गरीब होता चलता पर शरीफ होता
किस जन्म की दुश्मनी निकाली
बेटी थी
लाडली थी
अब तो ताउम्र भुगतना पडेगा
सहना पडेगा
जब गरीब की बेटी बोला जाता है
तब लगता है
किसी ने खौलता लावा कान में डाल दिया हो
ईश्वर बेटी दे तो धन भी दे
गरीब की बेटी होने का दर्द
दंश मारता है
सर नीचा रखना पडता है
हर वक्त उसकी औकात दिखाई जाती है
दया दृष्टि से देखा जाता है
रिश्ता भी बराबर वालों से होना चाहिए
शायद आज गरीब के घर ब्याही जाती
तब हो सकता था
स्वाभिमान से जीती
ऐसे हर वक्त तील - तील कर नहीं मरती
किसी गरीब के कलेजे का टुकड़ा हूँ मैं
अरमान भी थे
अब सब खत्म हुआ
जिंदगी काटनी है
कट ही जाएंगी
अब बच्चों का मुख देखना है
जीना है उनके लिए ।
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