करोना काल और लाॅकडाउन । वैसे तो गाँव में ज्यादा रहे नहीं । कुछ काम , ओकेजन , शादी - ब्याह जैसे अवसरों पर ही जाना होता है । हाॅ इस बार कुछ ज्यादा वक्त गुजर रहा है शायद गाँव रास आ रहा है या मन को भा रहा है ।
या फिर मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ।जो भी हो पर प्रकृति से जुड़ाव महसूस हो रहा है ।उम्र का भी तकाजा है
अब साठ पार कर चुके । रिटायरमेंट लाइफ ।
नजदीक से देखा जाय तो शहर से ज्यादा खुशहाल हालात है । न भागम-भाग न शोरगुल । अपनी मन मर्जी । दो घंटे भी खेत में काम कर लिया तो काफी है वह भी मौसम पर निर्भर । बनिस्पत शहर रात - दिन व्यस्त रहता है । घडी की सुइयों के साथ चलता है जीवन । बडी मुश्किल से दो जून का भोजन मयस्सर होता है । फिर भी भाग कर शहर की ओर ही रूख हो जाता है ।
डर लग रहा है । वैसे तो मृत्यु निश्चित है यही मानव जीवन का अटल सत्य है फिर भी उसको स्वीकार करना यह आसान नहीं है। भविष्य के सपने बुनता मानव आज करोना महामारी के जाल में ग्रसित हो गया है। सब उपाय फेल हो रहे हैं ।जीवन की जद्दोजहद जारी है। बचाव के उपाय हो रहे हैं ।मंगल और चांद पर जाने वाला मानव आज अपने को असहाय महसूस कर रहा है।
दिन रात अपनी और अपनों की चिंता सता रही है। रात को सुकून की नींद भी नहीं आती ।एक छींक आ जाय या बुखार आ जा रहा है तब मन घबरा उठता है।
कल का पता नहीं पर आज तो भय के साये में सभी जी रहे हैं । सारी गतिविधियां ठप्प है फिर भी महामारी का कहर जारी है अस्पताल भरे पडे हैं , ऑक्सीजन की कमी है, श्मशान में भी जगह नहीं है ।कतार और प्रतीक्षा । एकबारगी युद्ध की विभिषका समझ आती है पर इस छोटे से कंटीले वायरस को समझना मुश्किल है। दिन पर दिन अपने रूप बदल रहा है ।विज्ञान भी लाचार सा दिख रहा है
एक साल से ऊपर हो गया ।लंबा वक्त गुजर गया ।लोगों को इसने अलग कर दिया ।मानवीय संवेदना समाप्त कर दिया । एक - दूसरे से कतराने लगे ।दूरी बनाने लगें ।सामाजिक प्राणी मानव सोशल डीशस्टिंग करने लगा ।
कौन रहेगा कौन नहीं पर यह इस सदी का सबसे भयावह आपदा है ।इसे भूलना आसान नहीं होगा ।
चुनाव हो रहे हैं , रैलियां हो रही है , आंदोलन हो रहे हैं साथ में इसका कहर भी ।जान हथेली पर लेकर चल रहे हैं लोग ।और जिनके लिए चल रहे हैं उन देश के कर्णधारों को अब भी समझ आ जानी चाहिए । किसकी जरूरत है मंदिर की मस्जिद की या अस्पताल की ।
विद्यालय की , डाॅक्टर की या फिर स्टेच्यू की ।
आपस में ही एक - दूसरे से शिकायत है । केन्द्र और राज्य की । दूसरे देशों को वैक्सीन उपलब्ध करा दी गई और हमारे अपने देश में उम्र सीमा बांधी जा रही है ।
अपने घर में अंधेरा कर दूसरों के घर उजाला यह कहाँ की न्यायोचित बात है । मानवता अच्छी बात है सहायता करो पर अपनों को छोड़कर यह तो कहीं से भी ठीक नहीं है ।
कितना देशवासी मरेंगे । कभी नोटबंदी से कभी ऑक्सीजन की कमी से कभी अस्पताल में इलाज न होने से कभी आग और दुर्घटना से ।सिस्टम वैसा का वैसा ही है उसमें परिवर्तन क्यों नहीं लाया जा रहा ।पुराने का राग अलापने और दोषारोपण को अब छोड़ दिया जाय । सामने जो समस्या मुख बाए विकराल रूप में खडी है उस पर ध्यान केंद्रित किया जाय। सरकार जनता की माई बाप होती है तब उसकी जिम्मेदारी बनती है। कौन सी पार्टी कौन सा नेता यह मायने नहीं है ।जनता के साथ और उसके लिए जितना किया जा सकता है वह करें ।
मन विचलित है साथ में डर भी है अंतः जो समझ आया वह लेखनी में परिवर्तित हो गयी। बात शहर और गाँव से शुरू हुई और खत्म कहाँ हुई ?? क्योंकि डर है महामारी का कहर है । कुछ सुझता नहीं बस बुरे से ख्याल ।
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