Friday, 8 June 2018

इंसानियत मर रही. है

यहाँ इंसानियत रोज मरती है
कभी जानकर कभी अंजाने
रास्ते पर बूढ़ा चल रहा है
हम धक्का दे आगे बढ़ जाते हैं
गर्भवती महिला खड़ी है
पर अपने सीट पर हम बैठे हुए हैं
बच्चा गिर गया है
हम उठाए बिना आगे बढ़ गए
कोई किसी को मार रहा है
पर हम दर्शक बने रहते हैं
पडोस मे समस्या है
पर हमें क्या??
घर मे कोई बीमार है
पर हमारे पास समय नहीं रूकने का
ट्रेन के नीचे कोई कट गया
कोई गिर गया
हम तो जल्दी में है
दफ्तर पहुंचना है
यह रोजमर्रा की बात हो गई है
हमारे मन की संवेदना मर गई है
फिर इंसानियत कैसे जिंदा रहेगी

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