Wednesday, 1 June 2016

यह अंजाना पन - यह डर - कब तक

मैं गॉव गई थी पिछले दिनों कुछ समय के लिए
पर पहले और आज में इतना फर्क
पहले वह दो- तीन दिन का सफर बातचीत में कट जाता था  , जाते- जाते अंतरंग बन जाते थे
आज हर कोई अपने मोबाईल में व्यस्त
चेहरे से मुस्कान गायब
बातचीत तो दूर की बात
सहायता का तो सवाल ही नहीं
सामान ऊपर रखना हो या बच्चे को गोदी में छोडकर वाशरूम जाना
आपस में खाना बॉटकर खाना़
चाय और पानी का लेन देन
सब चेहरे को सिकुडा कर बैठे थे.
जमाना बदल गया है पर बदलने वाले कौन
वह आपसी बातचीत और अपनापन कहॉ गया
भारतीय आपस में दो घंटे भी साथ रहे तो एक- दूसरे की पूरी जानकारी और परिवार से परिचित हो जाते हैं
पर आज बच्चे को दूसरे की गोद में देने से डर लगता है
खाना ,खाने में डर लगता है ,पता नहीं जहर मिला हो
पानी भी नहीं पी सकते
कहॉ चली गई वह अपनियत
तमाम हिदायतों के साथ यात्रा करना
वह पहले वाला आंनद गायब हो गया
औपचारिक रह गए है हम

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