Saturday, 22 July 2017

कुर्सी भी कुछ बोलती है

यह निर्जिव कुर्सी पर सच में क्या निर्जिव
इसमें कोई भावना नहीं.
पर वास्तव में ऐसा नहीं है
जब किसी को बैठाया जाता है
उसका स्वागत सत्कार होता है.
तब कुर्सी की भी शान बढ जाती है.
खुशी के साथ गरूर भी हो जाता है.
इतराती और शानदार भी हो जाती है
जब किसी को उतारा जाता है तो गमगीन भी हो जाती
अपनापन का नाता जो बन जाता है
हँसी - खुशी , सुख- दुख बॉटा है साथ में
इसी पर बैठकर आदेश दिया , हुक्म किया
पद की रौबता दिखाई
कभी दया और अपनापन भी दिखाया
कभी गुस्से से बरसे भी
कभी साथियों के साथ हंसी - ठिठोली भी की
सब इसे पाना चाहते है
हसरत होती है बैठने की
पर यह दुख में तब सिसकती भी है
जब इस पर बैठने के लिए , पाने के लिए
गलत मार्ग चुने
अपनों को भूल जाए
इसी तख्तोताज के लिए क्या - क्या न हुआ
इसका इतिहास गवाह है
इसे निर्जिव मत समझना
हर कुर्सी भी कुछ बोलती है

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