"अनंत" जिसका नाम है, उसी का नाम "अनादि" है !!!
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं,
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न गलनेवाला और न सूखनेवाला है। आपस में एक दूसरे का नाश कर देने वाले पंचभूत इस आत्मा का नाश करने के लिए समर्थ नहीं है। इसलिए यह नित्य है। नित्य होने से सर्वगत है। सर्वव्यापी होने से स्थाणु (ठूँठ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होने से यह आत्मा अचल है और इसीलिए सनातन है। अर्थात किसी कारण से नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - २, श्लोक - २४)
यहाँ भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि यह आत्मा नित्य है यानी काल का कोई भी क्षण ऐसा नहीं आएगा जब यह अनित्य हो जाए अतः अनंत काल तक रहने वाला अनंत (जिसका अंत ना हो) है।
अनादि - जिसका आदि यानी आरम्भ न हो। विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में विज्ञान और गणित के पाठों में अनंत का उल्लेख अवश्य है किन्तु मेरी जानकारी में अनादि का उल्लेख इन विषयों में नहीं है। मैं गलत भी हो सकता हूँ, अतः मैं दावा नहीं कर रहा हूँ।
गणित कहता है, शून्य से विभाजित होने वाली किसी भी संख्या का परिणाम अनंत (∞) होता है। किंतु, क्या यह वही अनंत है जिसकी यहाँ चर्चा की जा रही है ? १ ÷ ०.०००००००१ = १००,०००,०००. यहाँ संख्या १ के विभाजित होने का परिणाम दस करोड़ है। यानी, यदि संख्या १ को शून्य से विभाजित करें तो परिणाम स्वरूप प्राप्त संख्या इतनी होगी जिसकी गणना संभव नहीं है यानी "अनगिनत" है। अनगिनत - जैसे सिर के बालों की संख्या। ठीक उसी प्रकार, यदि हम इस सीमित पृथ्वी को शून्य से विभाजित करें तो सीमित पृथ्वी सर्वव्याप्त सत्ता में परिणत नहीं हो जाएगा। अतः गणित के "अनंत" के लिए उचित शब्द "अनगिनत" है।
गणित कहता है, शून्य के दाईं ओर की सभी संख्याएँ(+) हैं जबकि शून्य के बाईं ओर की सभी संख्याएँ - हैं। स्पष्ट है, शून्य के दाईं ओर की संख्याएँ और बाईं ओर की संख्याएँ एक दूसरे के विपरीत हैं। जोड़, घटाव, गुणा और भाग माया की सत्ता में ही घटित होता है। + और - की भाँति जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि, यश-अपयश, सम्मान-अपमान, गर्मी-सर्दी, हास्य-क्रंदन, इत्यादि माया की सत्ता में प्रारब्धवश सहज ही उपलब्ध होता है।
प्रश्न है - क्या अनादि और अनंत + और - के समान एक दूसरे के विपरीत हैं? क्या दोनों दो छोर हैं? क्या दोनों दो अलग-अलग तत्त्व हैं?
उत्तर है - बल का प्रयोग करके हम मुट्ठी बांधते हैं। बल की समाप्ति के साथ ही मुट्ठी खुल जाती है। यदि मुट्ठी बांधने के लिए कभी बल ही नहीं लगा हो तो मुट्ठी खुली ही रहेगी। कहने का तात्पर्य है - संयोग (मुट्ठी का बंधना) होने से ही वियोग (मुट्ठी का खुलना)संभव है। यदि वियोग नहीं है तो संयोग कभी हुआ हो यह संभव नहीं है। अतः काल के किसी खंड में यह तत्त्व पहले न रहा हो यह संभव नहीं है। यदि ऐसा है, तो इस तत्त्व का आरंभ नहीं है। और जिसका आरंभ नहीं है उसी का नाम तो अनादि है।
स्पष्ट है, अनादि हूबहू वही है जो अनंत है। जिसका नाम अनादि है उसी का नाम अनंत है। अतः अनादि और अनंत एक दूसरे के विपरीत भी नहीं हैं और दो छोर भी नहीं हैं। वैसे भी सर्वव्याप्त सत्ता का कोई ओर-छोर संभव नहीं है। अतः इस तत्त्व का मध्य भी सम्भव नहीं है। इस तत्त्व में कुछ भी जोड़ नहीं सकते हैं - क्या, कहाँ जोड़ेंग? और न ही कुछ घटा सकते हैं - निकाल कर रखने के लिए स्थान कहाँ है? यानी यह तत्त्व (+) और (-) से परे है। मोक्ष प्राप्त करने वाले को यह सत्ता स्वरूपतः उपलब्ध होता है।
एक शब्द है आनंद, जिसका सम्बन्ध आत्मा से है और इस शब्द का कोई विपरीत शब्द नहीं है। सुख ही मोक्ष की प्राप्ति के बाद आनंद में परिवर्तित हो जाता है, जिसका विपरीत फिर कभी प्राप्त नहीं होता है!
जय श्री कृष्ण !! COPY PEST
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