Wednesday, 17 October 2018

एक चश्मा लगे न्यारा

चश्मा लगे कितना अपना
इसके जैसा नहीं कोई हमसफर
आँखों का यह संगी साथी
पहले पहल लगती झिझक
कुछ सालों बाद रहती हमेशा संग
चश्मे का हर रूप निराला
गोलाकार, चपटा ,अंडाकार
रंग बिरंगे फ्रेम मे सजता
कभी फैशन तो कभी जरूरत
उम्र के हर पड़ाव पर
बच्चे और बूढ़े दोनों पर यह फबती
हर पेशे की यह आँख बनती
शिक्षक की तो यह बेहतरीन साथी
न लगा तो किताब भी दिखती उल्टी-पुल्टी
पेपर बिन लगाए जाँचे तो हो जाय सब गोलमाल
छा जाये अंधेरा तभी तो चश्मा लगे प्यारा
यह है मेरी जान ,तभी तो मैं इस पर कुर्बान
यह नहीं तो मैं नहीं
आँख पर जबसे लगा
तबसे न हुआ कोई गिला -शिकवा
चश्मा लगाइए
जीवन को प्रकाशवान बनाइए

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