Wednesday, 21 November 2018

दीवारें

हर दीवार कुछ बोलती है
अपना इतिहास सुनाती है
दीवार बनी घर की
स्वयं को सुरक्षित करने की भावना
फिर द्वार की ,पड़ोसी की
जमीन की ,गाँव की ,समाज की
शहर की ,देश की
जात-पात की
धर्म -संम्प्रदाय की
रक्त की गोत्र की
सब इसके इर्द गिर्द घूमने लगे
इसने लोगों को बांट डाला
भावना संकुचित हो गई
वृत्ति स्वार्थी बन गई
हम से मैं की भावना
श्रेष्ठता की भावना धर कर गई
पक्षी आकाश की उडा़न भर सकता है
कही भी निसंकोच आ जा सकता है
पर इंसान इन दीवारों में कैद हो गया है
मंदिर ,मस्जिद ,गिरजाघर ने बांट लिया भगवान को
धरती बांटी
सागर बांटा
मत बांटो इंसान को
मानवता और इंसानियत के बीच आने वाली
हर दीवार को धराशायी कर देना है
क्योंकि हर धर्म से ऊपर इंसानियत है
भेदभाव कर कुछ हासिल नहीं हो सकता
जीना है शांति से
ऊपरवाले खुदा को भी जवाब देना है
उसने तो भेदभाव नहीं किया
यह तो हमारा ही बनाया हुआ चक्रव्यूह है
जिसमें हम चले तो गए हैं
पर बाहर का रास्ता पता नहीं ।

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