हम तो आए थे अपने घर
महसूस हुआ
वह घर नहीं
जो हम छोड़ गए थे
वह गांव नहीं
जो हम छोड़ आए थे
अब तो यहाँ भी अपनापा
भाईचारा तो है गायब
घर में ही सब अलग अलग
तब एक कमाता था
खाते सब समान थे
सबका हक उतना ही
आज वह बात नहीं
अब यहाँ भी पैसा बोलता है
आमदनी के हिसाब से
रिश्तों का मूल्य
अब नहीं कोई जाता किसी के द्वार
अब तो द्वार भी सूनसान
सब अपने अपने घरों में
नीम के नीचे नहीं
अब पंखे की हवा भाती है
खाना सब एक साथ नहीं
अपने अपने कमरों में खाते हैं
नहीं बतियाता कोई
सब मोबाइल में मशगूल
नई बयार है
नया जमाना है
नए-नए शौक है
अब बारात में वह बात नहीं
आना और जाना
बस रस्म निभाना
किसी के पास समय नहीं
अब घर के बुजुर्गों का वह रूतबा नहीं
वह तो किसी एक कोने में चारपाई डाल पडे हुए
कहने को तो सब संयुक्त है
पर सब अलग अलग
अब दातून नहीं ब्रश है
अब पोखर नहीं हैंडपम्प है
अब मिट्टी के बर्तन
पीतल तांबा कांसा नहीं
चमचमाता स्टील है
अब राख से नहीं रगडना
साबुन से चमकाना है
सबको शहर प्यारा है
गाँव में रहना नहीं गंवारा है
अब तो कुछ बचे खुचे हैं
खेती क्यों करें
अब तो मनरेगा है
सस्ता अनाज
गेहूं चावल
ऊपर से बैंक में आता सरकारी रूपया
बिजली और गैस मुफ्त
कर्ज लेना मजबूरी नहीं शौक
आज नहीं तो कल माफ
साइकिल और पैदल तो दूर
अब सबके पास मोटरसाइकिल है
क्या जरूरत काम की
रहना है आराम से
वह गाँव जो हम छोड़ आए थे
वह ऐसा तो नहीं था
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Friday, 12 June 2020
गाँव ऐसा तो नहीं था
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