Sunday, 20 December 2020

अपनेपन का अहसास

वाकया कुछ ऐसा है
मैं खडी थी कुछ सहकारियो के साथ
चर्चा चल रही थी
एक अंजान सी महिला आई
कंधे पर जोर से हाथ मारा
क्या रे कैसी है
पहचाना क्या ??
मैं अवाक कुछ क्षण
ध्यान से देखा और आवाज भी जानी - पहचानी
यह पुराने पडोसी थी
बचपन में हम साथ साथ खेलते थे
उम्र के साथ बहुत सा शारिरीक बदलाव आ गया है
अरे मैडम कौन है यह
खास कोई लगती है
मैं वहाँ से हट कुछ कदम आगे गई
बातें की कुछ अब की कुछ तब की
साझा की
नंबर का आदान-प्रदान किया
वह गई तब वापस सहकारियो के पास आ गई
आप सुनने की आदत पड गई है
पता नहीं कितने सालों के बाद किसी ने इस तरह बेहिचक बर्ताव किया हो
अच्छा लगा
थोड़ा हटकर
कुछ अपनापन
औपचारिकता से परे
कभी-कभी यह सब भी अच्छा लगता है
फिर से बचपन याद दिला जाता है
कुछ को लग सकता है
जरा भी मैनर्स नहीं है
कब और किस समय बात करना
सबके बीच आकर कंधे पर हाथ मारना
तू तडाक मे बात करना
अब वह तो बचपन की साथी
आप तो नहीं बोलेंगी
आदर सम्मान तो नहीं देगी
अपने बराबर ही समझेगी
उसने मेरे ओहदे को नहीं मुझे पहचाना
उसके वाक्य गूंज रहे हैं
अरे इतनी बडी हो गई
मुझे पहचान भी नहीं पाई
हंसते हंसते वह मेरी असली पहचान याद दिला गई
मुझे अपने समकक्ष ला खडा कर दिया
उसकी सहजता ने तमाम मैनर्स को ठेंगा दिखा दिया
अपने आप से मेरी पहचान करवा दी
याद दिला दिया
मैं बचपन की वही पगली सी अल्हड़ सी
कूदती - फुदकती दुनिया से बेखबर
बात बात पर खिलखाकर हंसने वाली
मन से भोलीभाली दुनियादारी से परे एक लडकी हूं

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