Sunday, 28 November 2021

वह साध्वी बनारस के तट पर

वह साध्वी थी
देखा था उसको मैंने बनारस के घाट पर
एक तेज था मुख पर
आभामंडल था चेहरा
वाणी मे  ओज
भाल पर चंदन का त्रिपुंड
दमकता हुआ व्यक्तित्व

सब नतमस्तक हो रहे थे
वह प्रवचन कर रही थी
बीच-बीच में राभधुन भी बज रही थी
गजब का सौंदर्य
रंग दूध सी सफेदी जैसा
विचार आया
ऐसा व्यक्तित्व तो संन्यासी बनने के लिए नहीं
कहीं न कहीं कोई बात तो है

एकांत में मिलने का समय मांगा
परमीशन मिलने पर अंदर दाखिल हुई
साष्टांग दंडवत कर जब पास ही नीचे बैठी
चेहरे पर एक अजब उदासी थी
एक लंबी आह भरी
क्या जानना चाहती हो

जानना चाहती तो हूँ
पर अपने बारे में नहीं
आपके बारे में
यह चोला क्यों पहना है
यह जीवन क्यों धारण किया है
थोडी सी सकुचाहट
पर मैं भी तो हठी
कहाँ छोडने वाली थी
मनोविज्ञान की स्टूडेंट
धीरे-धीरे खुलने लगी
पता चला
प्यार में धोखा खाया था
इसलिए विरक्त हो गई थी
इंसानो पर से विश्वास उठ गया था
भगवान से नाता जोड़ लिया था

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