उसको मैं झिडकती हूँ
उसको गाहे - बगाहे डांटती हूँ
बाहर का सारा डिप्रेशन उस पर निकालती हूँ
हमेशा नाज- नखरे करती हूँ
कभी खाने को लेकर तो कभी कुछ
इतना सब होते हुए भी मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ
वह भी मुझसे बहुत करती है
उसकी तो जान मुझमें बसती है
पर न जाने क्या हो जाता है
कभी-कभी सारा गणित डगमगा जाता है
तीखापन, रूखापन ,कर्कशता आ जाती है संबंधों में
वह जो भी है जैसी भी है
सबसे ज्यादा वही है मेरे लिए
फिर ऐसा क्यों होता है
न मैं उसका बुरा सोच सकती हूँ
न वह मेरे लिए कुछ ऐसा वैसा
फिर भी यह मुख है
उसमें से जो शब्द निकलते हैं
वह सब गडबड कर डालते हैं
मन का तो दिखता नहीं
शब्द अपना खेल , खेल जाते हैं
आपस में कडवाहट घोल जाते हैं
हम मायूस हो रह जाते हैं।
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