मैं किसी की जन्मदात्री
दोनों के ही प्रति फर्ज
एक जीवन के प्रभात पर
दूसरा जीवन की संध्या पर
एक की मैं अंश
दूसरा मेरा अंश
इनमें कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत मैं भी विद्यमान
लेकिन मैं पूर्ण रुप से कहां हूँ
यह समझ नहीं पाई
कभी किसी का पूरा नहीं बन पाई
न अपना और न किसी और का
बनती ही कहाँ से
स्वतंत्र ही नहीं जो बंधा है बंधनों से
वह भी प्रेम के बंधन से
उसे तोड़ भी नहीं सकती
तोड़ना भी नहीं है
यही तो जिंदगी है
इसका आनंद सब नहीं समझ सकते
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