मेरा सौंदर्य खिल उठता है
सबकी अपेक्षा यही रहती
साड़ी ही में तो औरत अच्छी लगती है
कभी-कभार लगता है
मेरी प्रशंसा मुझे इससे बांधने के लिए कई गयी है
न तेज चल सकती हूँ
न भाग सकती हूँ
न तैर सकती हूँ
न स्पोर्ट्स में खेल सकती हूँ
हर जगह के लिए अलग पोशाक
पुरुष की भी पोशाक बदली
वह धोती से पैंट में आया
वह फिर भी वह ही रहा
नारी के प्रति देखने का नजरिया वैसा ही
साड़ी ने उसे देवी बना दिया
साड़ी से नारी की यात्रा अब आगे निकल गई है
साड़ी भारतीय संस्कृति में है
उसकी विरासत भी कह लें
साड़ी से परहेज नहीं
यह परिधान अपनी इच्छा से हो
थोपा हुआ नहीं
तब ही यह जीवित रहेगी
इसकी गरिमा रहेगी
समय अनुसार बदलाव अवश्य भावी है
साड़ी का जोड़ नहीं यह सत्य
पहना जाए अपनी खुशी से
साड़ी दिवस मना कर नहीं
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