एक आवरण ओढ़कर मन पर रहा
किसी को अपने पास फटकने न दिया
एक गुरुर लेकर जीता रहा
अपने उसूलो पर चलता रहा
समझौता करना सीखा नहीं
झुकना मुझे पसंद नहीं
उसका परिणाम क्या निकला
अपनों से ही दूर होता गया
कभी उनसे खुलकर बात न कर पाया
न उनकी बात सुन पाया
जब जरूरत थी उनको
न प्यार दे पाया
न समय दे पाया
न उनके बचपन को जीया न उनकी जवानी को
आज एक टीस सी लगती है
फिर भी क्या करु
आदत से मजबूर हूँ
मैं ऐसा ही हूँ
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