अहा !ग्राम्य जीवन भी क्या है
कही ऐसा न हो की ये पंक्तिया केवल किताबो में ही रह जाये
गाव ख़त्म हो रहे है ,किसान खेत बेचकर शहरों की तरफ पलायन कर रहे है
स्वच्छ और प्रदुषण मुक्त वातावरण को छोड़ नाली और गटर के आस-पास बने झोपड़पट्टियों में
रहने को मजबूर है ,हरे-हरे खेत और पेड़ के अपेक्षा कंक्रीट और सीमेंट के जंगल बढ़ रहे है
विकास की बात करते करते कही हम विनाश के रास्ते पर तो नहीं बढ़ रहे है ?
अणु -परमाणु बम का अविष्कार कर जैसे हमने अपने आप को बारूद के ढेर पर बिठाया है
वैसे ही पर्यावरण ख़त्म कर हम अपने ही जीवन में विष घोल रहे है
विकास कही विनाश न बन जाये।
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