Thursday, 11 June 2015

बदलते ज़माने और बदलता समय ||

                                                         
आज हमारे पास सबकुछ कार,मोबाइल पर वो अपनापन नहीं
पहले एक के पास टीवी रहता था और सब उस घर के आसपास मंडराते थे
कोई खिड़की से झाकता कोई दरवाजे पर खड़ा
गुस्सा करने और आँख दिखने पर भी भागते नहीं थे और निर्लज बने रहते थे
पडोसी डाटता भले पर दरवाज़ा बंद नहीं करता था
चित्रहार,रविवार की फिल्म,क्रिकेट मैच,रामायण आदि देखने की तैयारी पहले से  होजाती थी
रविवार के दिन बीच गली में क्रिकेट खेलते बच्चे, पर उसके पीछे भागते बच्चे
पडोसी के फ़ोन पर सबका हक़,सब उसका नंबर देकर रखते थे
पोस्टमैन आने पर सब आस-पड़ोस के लोग गैलरी में जमा
फ़ैल होने पर सबकी डाट,फालतू घूमने पर सबकी नज़र
मेहमान आने पर ताका-झाकी,खाने की खुसबू बाहर तक
बिना निमंत्रण दिए भी जन्मदिन की तैयारी सारे बच्चो की
भले ही प्राइवेसी न थी लेकिन चिंता भी न थी
बच्चे अपने आप बड़े होजाते थे
आज तो पड़ोस में क्या हो रहा है यह भी  नहीं मालूम
आज भी पडोसी की वह डाट याद आते ही चेहरे पर मुस्कराहट आजाती ही।

  

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