जन्माष्टमी को हम ‘कृष्णोत्सव’ के रूप में मनाते हैं पर इससे बढ़कर वास्तव में यह तो ‘यशोदोत्सव’ है... बाल कान्हा की ‘मां यशोदा का उत्सव’। एक ऐसी मां जिसे जगत के तारणहार, सर्वशक्तिमान ईश्वर की मां होने से कोई सरोकार नहीं, जिसे गोकुल की गलियों में अपनी शरारतों से पूरे गोकुल में शोर कर अपने पास शिकायतों का पिटारा आने से भी कोई सरोकार नहीं कि वह जिसकी शिकायतें सुन रही है वह उसका स्व-जन्मा पुत्र नहीं है।
जिसे अगर किसी बात से सरोकार है तो बस अपने बाल गोपाल की मनभावन बातों से, जो दुनिया का मंगल करने वाले अपने पुत्र के मंगल के लिए चिंतित होती है, यह उस मां का उत्सव है...
कृष्णोत्सव से ज्यादा ‘मां की स्वार्थ-रहित ममता का प्रतीक’ यशोदा मां का उत्सव है जो यह दुनिया को यह सीख देते हुए कि ‘जन्म देने वाली मां से पालने वाली मां बड़ी है’ मां की ममता को सबसे बड़ा, सबसे महान साबित करती है...
इसलिए सही मायनों में श्री कृष्ण जन्म का यह उत्सव ‘मां के ममत्व’ की महत्ता साबित करता उत्सव भी है... इस उत्सव को 'यशोदोत्सव' के रूप में मनाकर मां को समर्पित है .
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