Tuesday, 11 October 2016

जीव और संसार

कुछ सोचते - सोचते अचानक सामने खडे पेडो पर दृष्टि
हरे - भरे पेड ,हिलते हुए पत्तें
अगर ये पत्ते न होते तो
इनसे ही तो पेड की शोभा
पत्ते बगैर पेड तो ठूठी लकडी के सिवाय कुछ भी नहीं
अपनी काली- भूरी ,टेढी - मेढी तनों और डालियों के साथ सौंन्दर्यविहिन
पतझड आने पर पत्ते झरते हैं
नई कोंपले फूटती है
नाजुक कोपलों से प्रौढ होते जाते हैं
हल्के पोपटी रंग से गहरे हरे रंग और अंत में पीले और मुरझा कर झड जाते हैं
नए को जगह मिलती है और यह क्रम अनवरत चलता रहता है .
वंसत से पतझड तक
बाद में मिट्टी में मिल जाना या जला डालना
पेड अपनी जगह पर वैसे ही खडा रहता
जब तक कि कोई झंझावात या तूफान न आ जाय
इस संसार की भी यही रीति है
लोग आते है ,जाते हैं
जन्म - मरण का चक्र चलता रहता है
दूनिया चलती रहती है जब तक कि प्रलय न आ जाय
सब तहस- नहस न हो जाय
सब वीरान न हो जाय
धरती की शोभा तो जीवों से ही है
नहीं तो मिट्टी ,पत्थर और चट्टान के सिवाय कुछ भी नहीं

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