Tuesday, 27 June 2017

जहॉ सोच वही शौचालय

यह आपबीती है एक महिला की
गॉव में ब्याह हुआ ,थी तो आलीशान कोठी पर शौचालय नदारद
शहर की पली- बढी ,खेतों में शौच जाने को मजबूर
मुँह अंधेरे उठना ताकि बैठने को जगह मिल सके
गहरी नींद लग गई तो सास के ताने सुनना
फिर जगह ढूडने की आफत
झाड- झंखाड ढूड कर बैठना पडता
नई बहू को भरी दोपहरी में लगी तो किसी की पुरानी साडी पहना कर भेजना ताकि कोई न समझ सके
पेट खराब होने पर मटकी में करवाना और फिकवाना
ठंड में अल सुबह ठिठुरते हुए जाना
शाम को अंधेरा होने पर शीत को झेलते हुए जाना
सारा कुछ अंधेरे में
ऐसा लगता जैसे जीवन ही अंधकारमय हो
सॉप ,कीडे ,बिच्छू का डर अलग
बरसात में तो कीचड सने पैरों से गंदगी में बैठना
शौचालय के नाम पर नाक- भौं सिकुडना
घर में गंदगी और बदबु नहीं चाहिए ,ऐसी सोच
हाथ भर घूंघट निकालो पर शरीर को ढकने वाले अंग के साथ खुले में शौच
यह कैसी दकियानुसी सोच
डर के मारे औरतों का पेट भर भोजन भी न करना
लडकियों का असुरक्षा के साये में जीना
पर अब तो जगह भी कम पड रही है
सडक बन रही है तो सडक के किनारे बैठने वालों की सोच भी बदल रही है
लडकियॉ ,शादी के लिए इन्कार कर रही है शौचालय के न होने पर
स्वच्छता का प्रतीक माना जा रहा है
अब तो सोचना है और शौचालय भी बनवाना है
बीमारी और गंदगी को दूर करना है
बडी सोच करनी है शौचालय बनवाना है
सच तो है जहॉ सोच वही शौचालय

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