Sunday, 3 September 2017

गटर में बह गई जिंदगी

कहीं गटर में बह गई जिंदगी
कहीं मलवे तले दब गई जिंदगी
कहीं कचरे के ढेर तले दम तोड गई
कहीं पेड गिरकर खत्म हो गई
कहीं रेल्वे के अपघात की बलि चढ गई
कहीं ईमारत ढहने से घुट गई
कहीं बाढ के पानी में बह गई
लोग अपनों से बिछड गए
बरसों की मेहनत स्वाहा हो गई
मौत तो आनी है पर इस तरह

यह तो स्वाभाविक मौत तो नहीं
इनका जिम्मेदार कौन??
सब एक - दूसरे पर दोषारोपण
कुछ दिन बाद सब सामान्य
लोग भी भूल जाएगे और प्रशासन भी
केवल वह ही जिनके अपने गए हैं
बची है उनकी याद
रोना और बिलखना
सपनों का उजडना
बेघरबार हो जाना.
फिर अगले साल बरसात होगी.
फिर यह सब दोहराया जाएगा.
प्रश्न यह है कि यह सिलसिला कब तक चलेगा ???

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