हर रोज सुबह होती है
मन करता है सोते रहूं
पर उठना पड़ता ही है
मजबूरी है
रोज तो काम पर जाना है
पर छुट्टी के दिन भी छुटकारा नहीं
पेट मे.गड़गड़ाहट शुरू
सोचता हूँ
रोज इसी पेट के कारण उठना पड़ता है
पेट की खातिर कमाना पड़ता है
यह पेट कभी शांति मे नहीं रहने देता
अगर यह न होता
तो कुछ झंझट ही नहीं
न खाने और न कमाने का
पडा रहता एक जगह
जो मन मे आता वह करता
कमबख्त पेट कहाँ चैन से बैठने देता है
उसकी क्षुधा कभी शांत नहीं होती
सारा विश्व उसके इर्दगिर्द
मानव क्या पृथ्वी का हर जीव
यह नाच नचाता है
सब नाचते है
यह इतना बड़ा गढ्ढा है
कभी भरता नहीं
दिखता है छोटा पर है भस्मासुर से भी बड़ा
वर्षों दर वर्ष गुजर जाते हैं
यह न.थमता है न रूकता है
अपने साथ सबको चलाता है
कहते हैं न
यह पेट हैं भाई
किसी से भी कुछ भी करा ले
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