एक अदद अपना भी घर हो
यह था अपना सपना
बचपन मे खेलते थे
घर - घर
उस घर मे सजाते थे बरतन
ब्याह रचाते गुड्डे गुड़िया का
जब स्वयं ब्याह कर आई
तब अहमियत पता लगी
एक अदद घर की
घर के सपने मे दशकों बीत गए
पर वह सपना अभी भी अधूरा ही है
किराए के घर मे रहते
उमर बीती जा रही
साल दर साल
आशियाना बदलना पड़ता रहता जाता है
बच्चों को भी उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है
वह अमीर घर मे जन्म नहीं ले पाए
दस कमरों मे एक
एक कमरे मे चार
वह भी अपना नहीं
नियति का खेल है अजीब
बचपन से घर - घर खेलती
आज तक वही खेल रहे हैं
अपना तो हुआ नहीं
अब होगा या नहीं
यह तो राम जाने
पर अपना घर न हो तो
सब लगता है अधूरा
जल्द हो यह सपना पूरा
यही गुजारिश है दाता से
बिना घर जीवन नीरस
घर है तो बहार है
नहीं तो सब जंजाल है
Hindi Kavita, Kavita, Poem, Poems in Hindi, Hindi Articles, Latest News, News Articles in Hindi, poems,hindi poems,hindi likhavat,hindi kavita,hindi hasya kavita,hindi sher,chunav,politics,political vyangya,hindi blogs,hindi kavita blog
Wednesday, 9 January 2019
घर का सपना
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment