Wednesday, 9 January 2019

रिक्शा

रिक्शे पर बैठ गया हूँ
रिक्शा चल रहा है
विचार भी अनवरत उमड़ घुमड़ रहे
कभी दाए कभी बाए
नजरे आ जा रही
कितनी भीड़
ट्रेफिक भी ज्यादा
कार बाइक की भरमार
सडक वैसी ही
वही संकरी गली सी
दूकानदार भी उसपर दूकान लगाए
अगर बदला नहीं तो यह रिक्शा चालक
पहले जैसे ही बंडी और मैली कुचैली धोती
कंधे पर लाल रंग का अंगोछा
पसीने से तरबतर
बहुत दिन बाद आया हूँ
रिक्शे पर बैठने का मन था
हाथ से रिक्शा खीचने वाले अब इक्के दुक्के ही
पर जो बात इसमें है
वह मशीन वाले मे कहा??
अचानक मन कुछ बोल उठा
मजा आ रहा है
सवारी कर
पर जो खींच रहा है
उसका विचार नहीं??
पता नहीं क्या मजबूरी होगी
आदमी ,आदमी को ही ढोये
इससे बड़ा स्वार्थ क्या होगा??
घर आ गया था
उतर कर उसे सौ रुपये दिए
बाकी साठ रुपए वह देने लगा
रख लो
वह आँखें उठा कृतज्ञता व्यक्त की
एक सलाम ठोक कर
गुनगुनाते हुए
रिक्शे पर पैडल मारते हुए आगे बढ़ गया
मन को सुकून मिला
किसी गरीब की दुआ मिली थी
वह मशीन से तो नहीं मिल सकती थी

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