पहले घर के दरवाजे खुले रहते थे
आज बंद रहते हैं
किसी को ताक झांक की इजाजत नहीं
बेवक्त किसी का भी अंदर नहीं आना
तब बात भी अलग थी
दरवाजे खुले रहते थे
दिल भी खुला रहता था
विचारों का आदान-प्रदान होता था
दुख सुख बांटे जाते थे
आज संवेदना मर गई है
व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है
वह डरता है
उसकी बात को पता नहीं किस रूप में ले
अपनापन समाप्त हो गया है
सहानुभूति के नाम पर मजाक
वह किसी को पसन्द नहीं
इससे तो अकेले ही भले
हम भले हमारा काम भला
हमारे घर का दरवाजा सार्वजनिक नहीं
जो किसी के लिए भी खुल जाय
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