एक अजीब सी पीडा है
एक अजीब सी हलचल है
मन जार जार रोता है
मुख पर मुस्कान
अंतर्मन में आंसू पीता है
कहने को मन छलक छलक जाए
उसकी पीडा कोई समझ न पाए
सपने रहे अधूरे
आशा भी तो नहीं हुई पूरी
हर बार कुछ न कुछ छूट जाता है
मन जार जार रोता है
इसकी व्यथा कोई क्यों समझे
जिस पर बीती वही जाने
जानने समझने को कुछ रहा ही नहीं
सब कुछ धरा का धरा रहा
हम बेबस खडे देखते रहे
समय हाथ से फिसलता रहा
हम संभलने की कोशिश करते रहे
वह ठेंगा दिखाता आगे बढता गया
हमें मायूसी के दलदल में फंसाता गया
मन जार जार रोता गया
हमें रौंदता गया
हमें रूलाकर दूर से तमाशा देखता गया
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