Tuesday, 20 August 2019

मैं बेचारी अकेली

मैं तो हरी भरी थी
जलपरी थी
न जाने किसकी बुरी नजर पडी
जल से निकाल मुझे गमले में लगा दिया
लगा मुझे बंदी बना दिया गया
जल में लहराती थी
मनमानी भी करती थी
गमला तो जेल लगता है
यहाँ जल के छींटे पडते हैं
वह जल लहरिया नहीं
जिसमे मैं इठलाती थी
डोलती थी
यहाँ तो बंदिशो में बंधी हूँ
हवा भी आती है
छूकर चली जाती है
वहाँ सबकी नजर मुझपर
यहाँ तो केवल माली है
आता है देखता है
चला जाता है
उसे मेरे से क्या लेना देना
वह अपना काम करता है
जाता है अगले दिन आने के लिए
मैं अकेली बिसुरती  हूँ
अपने पुराने दिनों की याद में

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