Friday, 9 August 2019

कुदरत की मार झेल रहा किसी का लाल

वह बच्चा था
कब कैसे बडा हो गया
यह तो उसे  स्वयं भी पता नहीं चला
रातोरात यह सब हो गया
सब कुछ छूट गया
उसके देखते देखते सब बह गये
वह असहाय देखता रह गया
नदी उफनती आई
सब कुछ साथ ले गई
उजाड़ गई
बरबादी का मंजर देखता वह रह गया
गाँव पानी में डूब गया
गलियों तो पता नहीं कहाँ है
बस पानी ही पानी
जीवनदायिनी पानी जानलेवा बन गया
अब तो वह बेबस है लाचार हैं
सोच रहा है
वह क्यों छूट गया
जब सब खत्म तब वह क्या करें
न घर न परिवार
ऑखों में ऑसू भी नहीं
वह भी पथरा गई है
अब दुलारने वाला कोई नहीं
मनुहार नहीं अब तो हाथ फैलाना है
पढाई नहीं पेट भरने की जद्दोजहद करनी है
समय ने वहाँ लाकर पटक दिया है
जो कल्पना भी नहीं की थी
किसी का लाल आज बेहाल है
सह रहा कुदरत की मार है

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