Wednesday, 16 October 2019

आज भी अजीज है

वह मेरी सबसे अजीज थी
वह गुल्लक थी
अलमारी में किताबों के बीच में रखता था
छिपाकर ताकि कोई देख न सके
मेरी इस प्यारी तिजोरी को किसी की नजर न लगे
पाई पाई बचाकर उसमें डालता
त्यौहार पर पैसे मिलते
नाते रिश्तेदारों से जो मिलते
सब मेरी गुल्लक की शोभा बनते
एकांत में उसे हाथ में ले हिलाता
कानों के पास ले जाकर खनखनाता
सिक्कों की खन खन से खी खी हंसता
वह मुझे अमीरी का एहसास कराता
उसकी खनखनाहट आज भी कानों में गूंजती है
नोटों की खडखडाहट भी फीकी लगती है
वह जमा पूंजी होती थी
भर जाने के बाद खुलती थी
आज सब भरा है
तब भी मन खाली है
टिका कुछ भी नहीं
आया और गया
बचपना अभी भी याद है
क्योंकि वह गुल्लक में समाया है
संजो कर रखा है
यह आसानी से खर्च नहीं होता
तभी तो गुल्लक तब भी अजीज था
आज भी अजीज है

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