पौधे तो बहुत है
नाम और काम के साथ
कोई खूबसूरत
कोई सुगंधित
कोई औषधीय
अपने अपने गुणों से भरपूर
इनको रोपने के लिए लालायित
सौंदर्यबोध होता है
कभी घर में
कभी दफ्तर में
कभी अगवाडे
कभी बगिया में
बस एक घास ही है
वह कहीं भी उग आता है
उसे किसी उर्वरक की जरूरत नहीं
चाहे या अनचाहे
किसी के बीच में
काटा और छाटा जाता है
वह बढना नहीं छोड़ता
अपनी पैठ बनाना नहीं छोड़ता
पहाड़ हो या समतल
इसे नष्ट करना भी इतना आसान नहीं
तभी तो आचार्य चाणक्य के पैर में जब चुभा
तब दही के मठ्ठे को डाल खत्म कर रहे थे
इसकी जड ही मिटा दूंगा
सीधा सादा
हर जगह समायोजित
वह जानता है अपनी कीमत
न रहे तो हरियाली गायब
केवल ठूंठ से पौधे और पेड़
सबकी शोभा का कारण वह
पशुओं का भोजन
गरीब की झोपड़ी
और न जाने क्या क्या
उपेक्षित है पर अपेक्षित भी
वह घास है
फिर भी खास है
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