Friday, 6 December 2019

डर के साये में जीता मनुष्य

जहाँ आनंद वहाँ पीडा
जहाँ आशा वहाँ निराशा
जहाँ प्रेम वहाँ क्रोध
जहाँ त्याग वहाँ मोह
जहाँ शांति वहाँ अंशाति
जहाँ निडरता वहाँ डर
और यह डर ताउम्र हमारे साथ
किसी न किसी रूप में
हम कभी इससे मुक्त नहीं हो पाते
वह मन के एक कोने में छुपा बैठा है
अजगर की तरह कुंडली मारे
कभी-कभी फैलाता है और हमें डरा जाता है
जन्मते ही डर शुरू
बच्चा सही होगा या नहीं
प्रसव कैसा होगा
सामान्य या सिजेरियन
यह सिलसिला जो शुरू तब वह मृत्यु के द्वार पर खत्म
मृत्यु तो अनिश्चित
वह डर तो शाश्वत
बीच बीच में बवंडर आते रहते हैं
व्यक्ति जूझता रहता है
धर्म का ,समाज का
शिक्षा का नौकरी का
भरण-पोषण का
परिवार का
हारी बीमारी का
भविष्य का
इसी चक्रव्यूह में अटका मनुष्य
जिंदगी के ताने बाने बुनता
डर के साये में जीता
एक अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाता है
क्या डर में जीना यही नियति है

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