माँ ने बडे प्यार से नाम रखा था खुशी
खुशी की किस्मत ऐसी
कभी न मिल पाई खुशी
बचपन तो खैर बीत गया
ऐसे तैसे
गरीब का बचपन भी कोई बचपन होता है
जवानी की दहलीज पर कदम रखा
खूबसूरत तो थी उस पर जवान
लोगों की नजरों पर चढने लगी
भेड़िए घात लगाए बैठे रहते
कब मिले कब लीले
कब तक बचती और बचाती
आखिर फंस ही गई जाल में
अब बैठी है अंधेरी कोठरी में
जीवन में अंधेरा ही अंधेरा
शाम को बिजली चमचमाते ही आ जाती है बाहर
ग्राहको को खुश करना काम है उसका
पर वह खुश न हो पाई
पेट है
जीना है
गुजर बसर करना है
अब यह तंग बदनाम गलियां ही उसका नया ठिकाना
झोपड़ी से उठकर कोठरी में
इससे ज्यादा कुछ नहीं
चेहरे पर मुस्कान ओढे
अंदर से सहमा सहमा
यही है इस खुशी की नियति
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Thursday, 22 October 2020
यही है इस खुशी की नियति
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