Thursday, 1 October 2020

ताप तो असह्य ही

कितनी तेज धूप
ऑखों को चुभती
आई थी धीरे से
हौले हौले
सुनहरी आभा फैलाए
पसरती गई
बढती गई
सब पर काबिज हो गई
अब तो जला रही है
तपा रही है
खडा रहना भी मुश्किल
यह छांव क्या देगी
शीतलता की तो अपेक्षा ही नहीं
अब तो लगता है
कब यह जाएं
यहाँ से विदा हो
अब इसका ताप सहा नहीं जाता
जल रही है
जला रही है
कब संझा हो
यह बिदा ले सबसे
कैसा भी हो
ताप तो असह्य ही होता है
वह बर्दाश्त नहीं

No comments:

Post a Comment