Thursday, 26 November 2020

जमा करना हमारी फितरत

हम लेते रहते हैं
लेते रहना  हमारा स्वभाव
मुफ्त में मिले तो क्या बात है
लाइन में खडे हो जाएंगे
भंडारा हो तो भर भर कर खाना
शादी हो तो ठूंस ठूंस कर खाना
किसी ने उपहार दिया तो खुशी से फूला नहीं समाते
सब्जी वाले से मुफ्त में धनिया - मिर्ची झोला में डलवाना
दस रूपये का सामान हो तब भी बारगेनिग करना ही है
कम करवाया यानि क्या अनमोल हासिल कर लिया
लेना तो हमारी फितरत में शुमार
देना हो तब संकुचित हो जाना

प्रकृति तो बिना स्वार्थ के देती है
सूर्य अपनी रोशनी
नदी अपना पानी
पेड अपना फल - फूल
चांद अपनी चांदनी
हवा , पानी , भोजन
सभी को देते हैं
हर जीव को पृथ्वी के

कोताही तो हम बरतते है
क्या देना
किसको देना
कब देना
नाम होगा कि नहीं
एहसान मानेगा या नहीं
यहाँ तक कि चेहरे पर मुस्कान भी
बोलना चालना भी
हर चीज में स्वार्थ
तोलना और मोलना
जैसे हम मानव न होकर एक व्यापारी हो
प्रकृति के अंग तो हम भी
फिर हम उसका अनुकरण क्यों नहीं करते
उससे क्यों कुछ नहीं सीखते
वह जमा नहीं करती , बांटती है
हमें जरूरत हो या न हो जमा जरूरी है
अपने लिए
अपने आने वाली पीढ़ी के लिए भी

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