सामने खिडकी के बैठे गुलमोहर निहार रही थी
लाल लालसूर्ख फूल और पत्ती झूम रहे थे
लहलहा रहे थे
मुस्करा रहे थे
कुछ गिर रहे थे
जमीन भी पट रही थी
वह भी ढक रही थी
सोच आया
कैसा है इनका जीवन
जब तक गिरे नहीं
तब तक खुशी से लहलहा रहें
अंतिम बेला तक
नए कोपलों को आने के लिए
नए को स्थान देने के लिए
यही जमे रहें तो नए कैसे उगे
मनुष्य क्यों नहीं स्वीकार करता
वृद्धत्व से डरता है
न छोड़ना चाहता है न हटना चाहता है
सब कुछ पकड़ रखना चाहता है
जबकि मृत्यु भी अटल सत्य है
अमर हो जाए अगर मानव
तब तो धरती ही पट जाएंगी
जगह ही न बचेंगी
प्रकृति का चक्र जारी रहता है
वह समतोल बनाएं रखती है
दुख का कारण स्वयं मानव
अधिकार और अंहकार
मुक्त नहीं होने देता
युवा बना रहना चाहता है ताउम्र
तभी तो संन्यास और वानप्रस्थ आश्रम
स्वेच्छा से स्वीकार कर लें
फूलों की तरह
पत्तों की तरह
तब नहीं होगा जीवन में दुख का आगमन
पेड़ मानो कह रहा हो
मुझे देखो और सीखो
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