Tuesday, 16 February 2021

वसंत आया और गया

मैं वसंत को तलाश कर रहा था
कांक्रीट के जंगल में
वहाँ कहाँ मिलेगा
सडक के किनारे अवश्य कुछ पेड - पौधे
हरियाली गायब
धूल - धुसरित
गाडी ले चल पडा गाँव की ओर
खेतों में पीली सरसों फूली थी
गेहूं की बालिया लहरा रही थी
आम के पेड पर बौर आ रहे थे
लग रहा था
त्रृतुराज वसंत पधारे हैं
फिर भी कुछ कमी दिखी
वह पहले वाली बात नहीं रही
जहाँ घनदार झाडिया थी
वह अब समतल बन चुका था
मंदार और धतूर का कहीं दर्शन न था
न कंटीले नागफनी
न घेरे मे मूंज
अपने लंबे लंबे घास के साथ
महुआ - बबूल सब लुप्त हो रहे
बगीचे भी कुछ ही बचें
घर बन गए हैं
काट छांटकर साफ सुथरा कर दिया गया है
बंसवारी की जगह पर शौचालय
बैलों की जगह ट्रेक्टर
फसल काटना और दावना मशीन से
वह द्वार पर लोगों की जमघट नहीं
वसंत तो दिखा भी
वसंतोत्सव कहीं नहीं
मन सिकुड़ गए हैं
व्यक्तिवाद हावी हो रहा है
सबका अपना अपना स्वार्थ
साथ और समूह में नहीं
अकेले चलना
लगा मैं गलत जगह ढूढ रहा था
अब वसंत आता भी है
तब चुपके से चला जाता है
आहट नहीं होने देता
कहीं लोग डिस्टर्ब न हो जाय
उनके जीवन में खलल न पड जाएं
वह दबे पांव आता है
दबे पांव चला भी जाता है

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