Thursday, 25 February 2021

मेरा शहर

अहा ग्राभ्य जीवन भी क्या है
कितना सुकून है
भैंस चारा खा रही है
कोई कुर्सी पर बैठा धूप सेंक रहा है
कुत्ता लोट रहा है जमीन पर
पेड़ भी शांति से खडे हैं
बीच - बीच में हिलते रहते हैं
कभी हवा का झकोरा
कभी सूर्य किरण अठखेलियां करती हैं
ऐसा नसीब शहर वालों का कहाँ ??
वह भागम-भाग की जिंदगी
घडी से जीवन नियंत्रित
गुलाम होता है समय का
ऐसी स्वतंत्रता मिलती भी नहीं
रास भी नहीं आती
यही तो अंतर है
एक निरंतर गतिशील
दूसरा अपनी मर्जी का मालिक
फिर भी कहीं न कहीं हम भी कहते हैं
मेरा शहर बडा न्यारा और बडा प्यारा
कुछ बात तो उसमें है
जो सबको बुलाता है
अपनाता है
बिजी और कर्मठ बनाता है
इस खुले आकाश की शांति से कहीं अधिक
वह भागती - दौड़ती और निरंतर गतिशील तथा जागती
विकास की ओर अग्रसर
जिंदगी प्यारी लगती है
यहाँ ठहराव नहीं
फर्श से अर्श तक पहुँचा देता है अगर आप कर्मठ हो तब
आपकी योग्यता की कदर होती है
यहाँ मौसम नहीं बदलता स्वयं को लोग बदलते हैं
हर मौसम एक ही समान
कुछ दिन की बात हो तब ठीक है
जिंदगी गुजारना तो अपने ही शहर में है

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